सोमवार, 11 जनवरी 2010

स्वामी विवेकानंद जी के शब्द - " एक व्यक्ति कितना अधिक से अधिक धन सम्पति रख सकता है यह पश्चिम ने हमें बताया है. एक व्यक्ति कितना कम से कम धन में सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर सकते है. यह बात भारतीयों ने विश्व को बताया है. वन्ही दुसरे स्थान पर विवेकानंद जी कहते है त्याग और सेवा भारतवर्ष का आदर्श है. विवेकानंद महात्मा बुद्ध  का उदहारण  देते हुए कहते है त्याग उसी को शोभा देता है जिसके पास त्याग करने के धन, वस्तु हो. इस  प्रकार हम देखते  है विवेकानंद  के प्रथम, दुसरे तीसरे विचार आपस में परस्पर विरोधाभास है. लेकिन है नहीं. विवेकानंद प्रथम विचार से भारत के गरीब होने का कारण स्पस्ट है. अर्थशास्त्र का सिद्धांत है -"आवश्यकता अविष्कार की जननी है. " हमने अपनी आवश्यकता को सिमित कर दिया है इस कारण विज्ञानं , अर्थशास्त्र, मेडिकल आदि के क्षेत्र में पिछड़ गए. आर्यों ने अपनी आवश्यकता असीमित का दी थी. सिन्धु घटी सभ्यता के साक्ष्य से स्पस्ट है वैसी धनाढ्य  रूप से आज के अमेरिकी निवासी भी नहीं रहते है उस समय भारत में बहुत सारे ज्ञान-विज्ञानं का अविष्कार हुआ. जिसका परिणाम था की aaryabhattya, पांडुरंग स्वामी, प्रभाकर, निह्शंकू, चरक, चाणक्य, नागार्जुन,  सुशुरत, मनु आदि वैज्ञानिक जन्म लिए. ये वैज्ञानिक भी हमारी तरह आम थे. आज पश्चिम ने आपनी आवश्यकता असीमित कर दी है. जिस कारण वे नित नये अविष्कार कर रहे  है. जैसे की प्राचीन काल में विश्व के लोग भारत आने को मजबूर थे. वैसे ही स्थिति आज अमेरिका के साथ है. महान वैज्ञानिक अल्बर्ट येस्टिन अमेरिका जाने को मजबूर हो जाता है.  हम भारतीय सबसे बड़े उपभोक्ता बनकर माल को आयात करने को मजबूर है. फलसवरूप हमारी अर्थव्यस्था कमजोर है. हमारे पास धन ही नहीं तो दान, त्याग,सेवा कहाँ से करेंगे. यदि हमें विकास करना है तो अपनी आवश्यकता बढ़नी होगी. ताकि हम आमिर हो सके तभी हम त्याग और सेवा कर सकते है. हम अमीर बनने  के लालच में भोगी बन जाने का डर है. इसलिए हमें भारतवर्ष का आदर्श त्याग और सेवा को आत्मसात करके रखना चाहिए. इस प्रकार हम आविष्कारक भी होंगे और त्यागी और सेवक भी बने रहेंगे. बुद्ध धनी राजा थे इसलिये उसे त्याग शोभा दिया था. कोई भिखारी कभी भी त्याग और सेवा नहीं कर सकता है. महान वैज्ञानिक होमी जहाँगीर भाभा जी के शब्दों में - "पहले हम यह सिद्ध करे की हम ताकतवर है फिर हम यह सिद्ध करे की हम बुद्ध और गाँधी भी है."

बुधवार, 23 दिसंबर 2009

दाल की खिचड़ी, बिना दाल की खिचड़ी

मंहगाई ने लोगो की थालियाँ से व्यंजन गायब कर दिए है. दाल तो किसी प्राचीन व्यंजन की तरह आदर्स्निया हो चुकी है. भले ही मंहगाई ने गरीबो के थाली से विविन्न व्यंजन छीन लिए लेकिन खिचड़ी ही ऐसा व्यंजन बची है जो मंहगाई को पटखनी दे रखी है. यह बात अलग है की बिना दाल की ही खिचड़ी पेट में उतर रही है. एक खिचड़ी ही ऐसा व्यंजन है जो  इतनी प्रतियोगिता के बावजूद भी अस्तित्व बचा पाई है. घ्ठ्था, मडुवा  की रोटी, दल का पिथ्था आदि कई व्यंजन तो भारत का पुरातत्व भोजन बन चुकी है. खिचड़ी ही है जिसने फास्ट फ़ूड, जंक फ़ूड, china फ़ूड को पटखनी रखी है.
   खिचड़ी से हमारे समाज को बहुत ज्यादा लगाव है. बिन बुलाये बारह मेहमान आये ओ खिचड़ी ही परोसी जाती है. यदि चावल घट जाती है तो मक्का का चावल मिलकर खिचड़ी बना  दी जाती है. गरीबो के बिच चावल-हल्दी की खिचड़ी काफी लोकप्रिय है. आज भी कई घरो में garah-गोचर उतरने के लिए खिचड़ी ही दिया जाता है. गरीबो का सहारा खिचड़ी है.
            मंहगाई ने बचपन की याद दिला दी   . गांव में माँ ने मुझे दो तरह की खिचड़ी खाने को दी थी. एक दाल की खिचड़ी और दूसरी हल्दी-चावल  की खिचड़ी. यसे ही मंहगाई उस समय छाई थी. मैंने माँ से कहा था जब सिर्फ हल्दी-चावल से खिदी बन जाती है तो दाल की स्य जरूरत है. फिर माँ ने बताया की दाल की खिचड़ी पौष्टिक होती है. सरीर का विकास करती है. हल्दी-चावल  की खिचड़ी तो सिर्फ जीवन को बुढ़ापे तक धकेलने के लिए है.
    आज भी खिचड़ी बेचलर छात्र का सबसे स्वादिस्ट व्यंजन है. मैं जब रांची पंहुचा तो सबसे पहला दिन खिचड़ी ही पकाया था.  आज भी सप्ताह में तिन-चार दिन बना लेता हूँ . मित्र दाल तसला में बनाते है तो सीझता ही नहीं है. सब्जी में कभी नमक ज्यादा तो कभी हल्दी ज्यादा और चावल  तो खीर में परिवर्तित हो जाती है. अधिकतर बेचलर छात्र समय बचने के लिए खिचड़ी , आचार, चोखा खाते है.
  खिचड़ी का sthan  हमारे अर्थव्यवस्था में बहुत अधिक है. खिचड़ी से स्टुडेंट, गरीब जनता और सरकार भी फल-फुल रही है. सरकार ने मिड-डे मिल चालू किया तो किसी और व्यंजन के सरन में नहीं गई बल्कि खिचड़ी के ही सरन में गई. यदि भारत में इतनी बड़ी आबादी जीवित है तो खिचड़ी के सहारे ही.
  फिलवक्त खिचड़ी याद आने मुख्य कारण झारखण्ड में खिचड़ी शासन बनने से है. पिछले बार हल्दी-चावल के खिचड़ी शासन बनी थी. इस बार हल्दी-चावल की खिचड़ी बनी है की दाल के यह तो झारखण्ड के सेहत से ही पता चल पायेगा. गरीब जनता ने फिर से खिचड़ी परोसी है.  जिन्हें कुछ बनाना नहीं आता है wah खिचड़ी jarur banaa lete है.

रविवार, 8 नवंबर 2009

जमीनी लोगो की दौड़

जल, जंगल, जमीं से जुड़े जमीनी लोगो के समक्ष अपनी जमीनी क्षेत्र का विकास करने का कोई भी दबाव नहीं होता है. जमीनी लोग कभी भी यह नहीं चाहते है की उनके जमीनी क्षेत्र का विकास हो. यदि उनके जमीनी क्षेत्र का विकास होता है जमीनी व्यक्ति को अपनी ही जमीं पहचान में नहीं आती है. अपनी इस समस्या के कारण जमीनी लोग अपने क्षेत्र का विकाश नहीं चाहते है.
                  झारखण्ड के नेता जमीनी होते है. जमीनी लोग रुढ़वादी होते है.  साथ ही साथ रुढ़वादी लोग हिंसक होते है. अपने को जमीनी कहने वाले व्यक्ति दुसरे को जमीनी बनने देना नहीं चाहते है. इस निति के आधार पर ही झारखण्ड के जमीनी नेता झारखण्ड की जनता को जमीनी बनने नहीं देना चाहते है. जब झारखण्ड की जनता झारखण्ड में रह कर काम करेंगे तो जनता जमीनी हो जायेंगे. इससे झारखण्ड के जमीनी नेता का जमीनी पकड़ अधिक नहीं हो पायेगी. इसलिए झारखण्ड के नेता जनता को पलायन कर रही है.
               महारास्ट्र के राज ठाकरे स्वं को जमीनी कहते है. उनकी हिंसक मानसिकता आज पुरे भारत में विख्यात है. पाकिस्तान के आतंकवादी स्वं को जमीनी कहते है. ये आतंकवादी अपनी  जमीनी पकड़ कमजोर पड़ता  देख अपनी  ही जमीं में ज्यादा के जयादा विस्फोट करने लगे. इन उदाहरणों से आप समझ सकते है की जमीनी लोग अपनी जमीनी पकड़ बनने के लिए किसी भी हद तक गिर सकते है.
              झारखण्ड में विधानसभा चुनाव होने वाला है. इस चुनाव में स्वं को जमीनी कहने वाली बहुत सारे  नेता है. ये नेता स्वं को जमीनी कह कह कर जनता को गुमराह कर रहे है. झारखण्ड की जनता इस बार एसे नेता को वोट दे, जो स्वं की जमीनी पकड़ नहीं बढाता हो बल्कि जनता की जमीनी पकड़ झारखण्ड में बढ़ने के लिए बेताब हो.

मंगलवार, 3 नवंबर 2009

ढोने की मज़बूरी

ढोने की मज़बूरी होती है तभी तो लोग ढोते है. जैसे की मध्य प्रदेश की गरीब, दलित  जनता आज भी अमीर लोगो के मल ढोने को मजबूर है. पिछले दिनों यह समाचार झारखण्ड (रांची) के एक अखबार में छपी. एक पाठक ने टिप्पणी की 'ठीके कहे हम भी इ सरकार को ढोने को मजबूर है.
                                     चीनी और चुन्नी दो अलग-अलग चीज है. झारखण्ड के अलावा अन्य राज्यों की जनता के पास चीनी और चुन्नी दोनों को ढोने को मिलते है. चीनी जैसी मिठास वाले नेता चुनते है तो उनके क्षेत्र का विकाश होता है. चुन्नी वाला को ढोते है तो उनका विकाश नहीं होता है.
                                    लेकिन झारखण्ड की जनता को न तो चीनी नसीब है और न तो चुन्नी नसीब है. झारखण्ड को जनता मज़बूरी में ये सरकार को ढो रही है. जैसे की मनमोहन सिंह ए. राजा को ढो रहे है. ए. राजा ६० हजार करोड़ के घोटाले में पकरे गए, फिर भी उन्हें ढोया जा रहा है. कंही सरकार न गिर जाये सो मनमोहन सिंह उसे ढोने को मजबूर है. मधु कोडा कह दिए - "सब पैसो का खेल है नहीं तो हम एक दिन के लिए भी मुख्यमंत्री पद के लिए नहीं ढोए जाते. "  इस पर झारखण्ड की जनता ने कहा था ,  समझ रहे हम मधु कोडा जी आफ्हू बोरा-बोरा ढो कर सोनिया गाँधी को पैसा ढो कर पहुचा रहे है. कांग्रेस ने मधु कोडा, बंधू तिर्की, एनोश एक्का आदि को ढोया  था . कांग्रेस को  सरकार बनाने के  लिए इन्हें ढोना तो मज़बूरी ही थी. ढोने के दरम्यान ही दिल्ली से एक कांग्रेसी नेता रांची आये अजय माकन.  उन्होंने कह दिया कांग्रेस अब कोडा को नहीं ढोएगी. अल्टीमेटम दे दिए. झारखण्ड की जनता चीनी ढोए या नहीं ढोए लेकिन अजय माकन का नाम लेते ही झारखण्ड की जनता के मुह में चीनी जैसी मिठास जरुर आ जाती है. कांग्रेस, झामुमो, राजद की मदद से मधु कोडा मुख्यमंत्री बनने के बाद, मधु कोडा ने २००० करोड़ रूपये कमाए. इतना पैसा कमाए  की पैसा ढोने की मज़बूरी मधु कोडा को आन पड़ी. इस प्रकार मधु कोडा भी ढोने को मजबूर हो गए.
                            इस बार झारखण्ड की जनता क्या ढोएगी ?

गुरुवार, 22 अक्तूबर 2009

पुरस्कार का वितरण

संदर्भ : नोबेल शांति पुरस्कार महात्मा गाँधी को  क्यों नहीं मिला? , बराक ओबामा को क्यों मिला ?
पुरस्कार कौन प्राप्त करेगा? कौन प्राप्त नहीं करेगा ? इस बात को जानने के लिए लोगो की कद, गुण , हैसियत जानना बहुत जरुरी हैपुरस्कार पाने की पहली स्थिति है - जो लोग पुरस्कार के योग्य नहीं होते है उसे पुरस्कार नहीं मिलता है. पुरस्कार पाने की दूसरी स्थिति है - जो पुरस्कार के योग्य होते है उसे ही पुरस्कार मिलता है. पुरस्कार पाने की तीसरी स्थिति  है किसी व्यक्ति का कद, गुण हैसियत पुरस्कार से भी उची होती है. इस कारन उस महान व्यक्ति को पुरस्कार नहीं मिलता है. पुरस्कार पाने की चौथी स्थिति है - कुछ लोग पुरस्कार के योग्य नहीं होते है फिर भी उन्हें पुरस्कार  मिल जाता है. पिछले दिनों बराक ओबामा को नोबेल शांति पुरस्कार दिया गया . अरब जगत का कहना है की ओबामा अफगानिस्तान में सेना भेज रहे है. फिर उसे शांति नोबेल पुरस्कार दिया जाना अनुचित है. इधर भारतीयों का कहना है महात्मा गाँधी को नोबेल शांति पुरस्कार क्यों नहीं मिला ? मैं महात्मा गाँधी का कद, गुण, हैसियत को इतना उचा मानता हूँ की नोबेल शांति पुरस्कार उसकी हैसियत के सामने छोटा है. यानि महात्मा गाँधी तीसरी स्थिति में है. बराक ओबामा दूसरी स्थिति में है या चौथी स्थिति में है. कृपया यह आप बताएं. 

शनिवार, 10 अक्तूबर 2009

माओवाद का फैलाव

माओवाद का फैलाव कुछ विशेष परिस्थितियों में ही होती है. एसी बात बिलकुल नहीं है की किसी भी परिस्थिति में माओवाद का फैलाव हो जायेगा. यदि एसा होता तो पूरा विश्व पर माओवाद का प्रभाव होता. लोग माओवाद से डरे सहमे रहते, जैसा की वर्तमान में झारखण्ड , बिहार, वेस्ट बंगाल आदि  राज्य है. माओवाद का फैलाव पाशान्कालीन भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक स्थितियों में बहुत तेजी से होती है.  एसा इसलिए होता है क्योंकि पाशान्कालीन लोगो की विचारधारा तथा माओवाद की विचारधारा बहुत ज्यादा मिलती जुलती है. जैसे की पाशानकाल में हिंसा करना. उस समय के लोग हिंसावाद के समर्थक थे. अपना कोई भी कार्य हिंसा के सहारे करते थे. जैसा की वर्तमान में माओवादी हिंसा के सहारे ही कोई काम करते है. भोगोलिक स्थिति से तात्पर्य जैसे पेड़-पोधो तथा जंगली क्षेत्र, में माओवाद बहुत तेजी से फैलता है.पासांकालिन लोग जंगल में रहते थे और हिंसा के सहारे जंगलो में अपना जीविकोपार्जन करते थे. वर्तमान में झारखण्ड के माओवादी भी उसी राह में है. दूसरी बात माओवाद का फैलाव पासान्कालीन सामाजिक स्थिति में तेजी से होती है. पासानकाल काल के लोग सामाजिक नहीं थे. उनका कोई मित्र, बंधू, सखा, दोस्त नहीं होता था. सभी उनके शत्रु थे. अहिंसा का नामोनिशान नहीं था. ठीक इसी प्रकार वर्तमान में माओवाद का कोई मित्र आदि नहीं है. किसी को भी छः इंच छोटा कर देते है. तीसरी बात पासान्कालीन आर्थिक स्थिति में माओवाद का फैलाव तेजी से होती है.  पासानकाल में कृषि के अविष्कार से लोगो के आर्थिक स्थिति में परिवर्तन आया, लेकिन  जिस क्षेत्र में कृषि का अविष्कार नहीं हुया था उस क्षेत्र के लोग अपना पेट हिंशा करके भरते थे. कृषि में रोजगार उत्पन्न होने से, हिंसावाद का पतन हुआ. जैसे-जैसे सभ्यता विकास करती गई लोग पाषाण काल की मुख्य विशेषता हिंसा का परित्याग करते गए. कहने का तात्पर्य है जो क्षेत्र या लोग विकास किये वे हिंसावाद (माओवाद) का त्याग कर दिए. जैसे की वर्तमान में चीन ने विकास किया तो वह भी माओवाद की बाहर कर दिया.
                                                            स्पष्ट है समाजिक , आर्थिक रूप से पिछडे ख्सेत्र में माओवाद का फैलाव हो रहा है. भारत सरकार को झारखण्ड, वेस्ट बंगाल आदि राज्यों के पिछडे क्षेत्र में शिक्षा व रोजगार की वृद्धि करनी चाहिए. ताकि माओवाद का फैलाव न हो.

रविवार, 20 सितंबर 2009

इतिहास बोध और शोध

संदर्भ : जसवंत सिंह की पुस्तक
इतिहास के बारे में जो हमें ग़लत जानकारी है। तो इतिहास शोध होना आवश्यक है ताकि हमें सही जानकारी मिले, इतिहास का सही बोध हो सके । चर्चिल के अनुसार " जितना संभव हो सके इतिहास को झांको" इतिहास बोध इक प्रकार से आन्तरिक ऊर्जा का कार्य करती है। इतिहास में घटित श्रेष्ठ घटना हमारी आन्तरिक ऊर्जा को उत्साह के साथ कार्य करने को प्रेरित करती है। भारत का यदि इतिहास बोध होता है भारतीय के मन को अच्छे कार्य करने को प्रेरित करेगी । लेकिन जिस इतिहास बोध से हमें भारत के नवनिर्माण में किसी प्रकार का लाभ ना हो उस इतिहास बोध से क्या लाभ । जिस इतिहास बोध से , हमारी आंतरिक ऊर्जा को कार्य करने को प्रेरित नही करेगी उस इतिहास बोध से क्या लाभ है। जसवंत सिंह ने जो इतिहास बोध कराया है उस इतिहास बोध से क्या भारत के नवनिर्माण में किसी प्रकार का लाभ होगा ? क्या हमारी आन्तरिक ऊर्जा प्रेरित होगी ? इन प्रश्नों का उत्तर है। "नही" । तो फिर इस तरह के इतिहास बोध क्या आवस्यकता है। भाजपा को इस द्वंद युद्घ से निकलना चाहिए .